Sanjay Tripathi, Editor

संजय त्रिपाठी पिछले 24 वर्षो से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। बचपन से आज तक एक जुझारू समाजसेवी , मौलिक चिंतक एवं लेखक के रूप में कार्यरत हैं। एक कलमकार होने के कारण नाटक, लेख, व्यंग्य, कविता इत्यादि विधाओं में निरंतर लगे रहना ही इनका शगल है।अनुभव के 24 वर्षो के अन्तराल में पत्रकारिता के साथ ही विभिन्न मुद्दों पर संघर्ष के लिए मैदान में खड़े रहना संजय त्रिपाठी की आदत बन चुकी है। 1992 में ‘ दैनिक जागरण ’ से पत्रकारिता का सफर एक संवाददाता के रूप में शुरू किया , जो आज ‘विशेष संवाददाता’ के मुकाम तक पहुँच चुका है।                                                               


हालांकि इन 24 वसंत की अवधि में ‘अमर उजाला, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, वीर अर्जुन, दैनिक हिन्दुस्तान, पंजाब केसरी, सन स्टार, अमृत वर्षा, दिव्य रणभूमि के रास्ते ‘दैनिक आज’ तक कई पड़ाव आये और हर पड़ाव को सफलतापूर्वक पर करते हुए एक सक्षम और सशक्त व्यक्तित्व की पहचान समाज  त्रिपाठी ने हासिल की है। इस सफर के दौरान कई तरह के झंझावतों से गुजरना पड़ा है, किन्तु विपरीत हालात में ही 'कुशल नाविक' की पहचान  होती है और त्रिपाठी जी ने इसे बखूबी साबित भी किया है। जिलास्तरीय पत्रकारिता से राष्ट्रस्तरीय पत्रकारिता तक के सफर में कितने उतार - चढाव आए हैं, कई तरह के संघर्षो से जूझना पड़ा है, इसका अनुभव एक संघर्षशील व्यक्ति ही समझ सकता है। 



संजय त्रिपाठी और संघर्ष का चोली - दामन का साथ है। संघर्ष के बिना संजय त्रिपाठी का कोई अस्तित्व नहीं और यह क्रम लगातार जारी है। 1986 में इंटर की परीक्षा देकर घरेलु परिस्थितियों के कारण घर से गाजियाबाद आ गया था और उसके बाद हिंडन एयर फोर्स के पास उस दौरान स्थित ‘टाटा आयल्स मिल्स’ में मजदूरी का कार्य किया। करीब 6 माह बाद ही सामाजिक कार्यो में रूचि होने के कारण उसकी तरफ अग्रसर हुआ और फिर मोहननगर क्षेत्र में ‘एसयुसीआई’ कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़कर राजीव कालोनी झुग्गी - बस्ती से गरीब, मजदूर व निसहाय लोगों की सेवा में लग गया। इस कालोनी के कुछ सम्मानित, राष्ट्रप्रेम व समाज-सेवा से जुड़े लोगों ने भी मेरा साथ दिल खोलकर दिया। क्षेत्र के मूर्धन्य, विद्वान व सामाजिक कार्यकर्ताओं के भागीरथ प्रयत्नों से कालोनी में ‘शान्ति निकेतन स्कूल ’ की स्थापना 1987 में हुई। स्थापना के समय यह विद्यालय तिरपाल व टाट - पट्टी टांग कर शुरू किया गया। लगनपूर्वक 1987 से 1989 तक एक शिक्षक के रूप में अकेला कार्य किया। शुरूआत के कुछ दिनों तक दोनों समय लोगों के घर खाना खाकर स्कूल चलाया। बाद में कई तरह की परेशानियों का सामना करने के कारण 5 रूपए की फीस सभी कक्षाओं के लिए लगाई गई। इसी तरह धीरे - धीरे 5 से 10 रूपए शुल्क बढ़ता गया। लेकिन आज भी इस क्षेत्र के अन्य स्कूलों से यहां शिक्षण शुल्क बहुत ही कम है, और शिक्षण के स्तर का गवाह है इस विद्यालय के होनहार युवक। यह क्रम अनवरत जारी है और मेरा संकल्प है कि  इसमें कदम दर कदम बढ़ते ही रहा जाय। 




स्कूल के साथ ही कम्युनिस्ट विचार - धारा से जुड़ाव होने के कारण सामाजिक कार्यो में मेरी बहुत ही रूचि रहती। उस समय के युवकों पर रामधारी सिंह दिनकर, 'निराला', जयशंकर प्रसाद, राम नरेश त्रिपाठी,  महादेवी वर्मा, हरिऔध, मैथिली शरण गुप्त जैसे कवियों की देशभक्ति में डूबी पंक्तियां बहुत ही प्रभाव डालती थी। आजादी के 37 वर्ष बाद भी लोगों में देश व समाज के प्रति लगाव दिखाई देता था, जिसका असर नवयुवकों पर ज्यादा पड़ा। इसी कारण विद्रोही स्वभाव और देश को आगे बढ़ाने की लालसा ने मुझे भी पिता से विद्रोही बना दिया, जिसका नतीजा रहा कि एक दिन घर छोड़ना पड़ा। हालाँकि, घर छोड़ने के बाद भी लगातार गाँव और क्षेत्र से पहले से भी अधिक जुड़ाव बन गया और छठ-पूजा से लेकर दुसरे कार्यों में न केवल अपना सक्रीय सहयोग रखता हूँ, बल्कि अपने गाँव के युवकों का लगातार उत्साहवर्धन करने का प्रयत्न भी करता रहता हूँ। तब 1984 में हाईस्कूल परीक्षा पास करने के बाद एक परीक्षा देने लखनऊ जाते समय ट्रेन-सफर के दौरान अपनी पहली ‘भोजपुरी’ कविता लिखी। 1992 में पत्रकारिता से जुड़ने के बाद नाटक, कविता, लेख, कहानी लिखने की भावना जागृत हुई। इसी क्रम में, एक कविता संग्रह ‘स्नेह’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। करीब डेढ़ दर्जन नाटक लिखकर उसका मंचन कई शहरों में कराया गया है और पिछले पांच वर्षो से हर वर्ष 23 मार्च ‘शहीदी दिवस’ के मौके पर अन्ना हजारे की दिल्ली इकाई की टीम द्वारा ‘भगत सिंह’ नाटक का मंचन मेरे निर्देशन में कराया जाता है।



पत्रकारिता के क्षेत्र में कई नामचीन वरिष्ठ पत्रकारों के दिशा-निर्देशन में काम करने का मौका मिला। इस दौरान कई ऐसे मुद्दों को सामने लाया जिसमें मेरे साथ संपादकों को भी परेशानी उठानी पड़ी, लेकिन आज भी मेरा प्रयास निरंतर जारी है। 1997 में शुरू किया गया मेरा काॅलम ‘‘ खुल्लम - खुला ’’ आज भी लोगों को अपने तरफ आकर्षित करता है। ‘पत्रकार समाज का दर्पण होता है’ - यह मेरी इस क्षेत्र के जीवन की सुक्ति है , और हमेशा इस पर कायम रहने की प्रार्थना ईश्वर से करता रहता हूँ। 
संजय त्रिपाठी 
संपादक 




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