संजय त्रिपाठी
अंग्रेजों के समय से ही विरोधियों को दबाने के लिए ‘ राजद्रोह ’ धारा का इस्तेमाल सरकार करती रही है। आजादी के बाद भी भारत में भी अंग्रेजों की बनाई धारा राजद्रोह 124 ए कायम है और इस धारा के बल पर अब तक की सभी सरकारें अपनी विरोधियों का मुंह बंद करती रही है। आज मोदी सरकार में इसका प्रयोग कुछ ज्यादा ही हो रहा है। अब तक इस धारा के तहत समाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, विपक्षी व वुद्धिजीवी वर्गो को जेल में डालने का कार्य तेज गति से किया गया है जिसके कारण आज यह अंग्रेज सरकार की बनाई धारा वहस के मुख्य मुद्दा में है। सबसे पहले हमें यह जानना चाहिए कि राजद्रोह क्या है ? ‘ कोई भी व्यक्ति देश - विरोधी सामग्री लिखता, बोलता है या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, या राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, तो उसे आजीवन कारावास या तीन साल की सजा हो सकती है। ’ यह आईपीसी की धारा 124 ए राजद्रोह कहलाता है और इसके यह दंण्ड विधान है । कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के बीच आईपीसी की यह धारा चर्चा में है।
बीते मंगलवार को ही दिल्ली की एक अदालत ने किसान आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया पर फेक वीडियो पोस्ट कर अफवाह फैलाने और राजद्रोह के मामले के दो आरोपियों को जमानत दी है। साथ ही कोर्ट ने इस कानून पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि उपद्रवियों को खामोश करने के बहाने असंतुष्टों को खामोश करने के लिए राजद्रोह का कानून नहीं लगाया जा सकता। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है जब कोर्ट ने इस कानून के दुरूप्योग को लेकर कोई टिप्पणी की हो । सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग भी इसके दुरूप्योग को लेकर टिप्पणी कर चुके हैं। दरअसल 150 साल पहले 1870 में जब से यह कानून प्रभाव में आया तभी से इसके दुरूपयोग के आरोप लगने शुरू हो गए थे। अंग्रेजों ने उनके खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए इस कानून का खूब उपयोग किया। इस धारा में सबसे ताजा प्रकरण किसान आंदोलन टूल किट मामले से जुड़ी पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि पर दर्ज हुआ है। आजादी के बाद केंद्र और राज्य की सरकारों पर भी इसका दुरूपयोग करने के आरोप लगते रहे है।
आजादी के बाद भी इस धारा का उपयोग सरकारों द्वारा क्यों की जाती है इसके लिए यह जानना जरूरी है कि यह कानून कैसे बना और कितना बदला ? ब्रिटिश काल में वर्ष 1860 में आईपीसी लागू हुई। इसमें 1870 में विद्वेष भड़काने की 124 ए धारा जोड़ी गई। थॅामस बबिंगटन मैकाले ने इसका पहला ड्राफ्ट तैयार किया था। मैकाले ने ही भारत की शिक्षा नीति तैयार भी की थी। 1870 के दशक में अंग्रेजी हुकूमत के लिए चुनौती बने वहाबी आंदोलन को रोकने के लिए यह कानून बनाया गया। यह भी जानकार हैरानी होगी कि पहली बार बालगंगाधर तिलक पर राजद्रोह की मुकदमा इस धारा में दर्ज हुआ। यह घटना 1897 की है। इसके मामले में ट्राॅयल के बाद सन 1898 में संशोधन से धारा 124 -ए को राजद्रोह के अपराध की संज्ञा दी गई। अ्रग्रेजो ने इस धारा का बहुत इस्तेमाल किया। आजादी के बाद भी यह आईपीसी में बना रहा। हालांकि इसमें से 1948 में ब्रिटिश बर्मा ( म्यांमार ) और 1950 में ‘ महारानी ’ और ‘ ब्रिटिश राज ’ शब्दों को हटा दिया गया। अंग्रेजों के समय इस धारा के तहत कालेपानी की सजा दी जाती थी, लेकिन आजादी के बाद इसे बदल कर आजीवन कारावास का प्रावधान किया गया। आजादी के बाद इस धारा को लेकर जोरदार बहस छिड़ा साथ ही लोग इसका विरोध करने लगे तब 1958 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया। पर 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने वैध ठहराते हुए इसके दुरूपयोग को रोकने के लिए युक्तिसंगत शर्ते लगा दी। 2018 में विधि आयोग ने भी इसका दुरूप्योग रोकने के लिए अनेक प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की। सुप्रीम कोर्ट के फैसले और विधि आयोग की अनुशंसा लागू करने के लिए संसद के माध्यम से कानून में बदलाव करना होगा। इस धारा का प्रयोग केद्र की सभी सरकारें अपने विरोधियों को दबाने के लिए प्रयोग करती रही है। अंग्रेजों ने तो इसे बनाया ही था अपने खिलाफ विरोधी स्वर को दबाने के लिए, लेकिन आजाद भारत की सरकारें भी इसका दुरूपयोग करती रही ।
1891 में राजद्रोह के तहत पहला मामला दर्ज किया गया। बंगोबासी नामक समाचार पत्र के संपादक के खिलाफ ‘ एज आॅफ कंसेंट बिल ’ की आलोचना करते हुए एक लेख प्रकाशित करने पर मामला दर्ज हुआ। इसी तरह 1947 के बाद आरएसएस की पत्रिका आॅर्गेनाइजर में आपत्तिजनक सामग्री के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था। सरकार की आलोचना पर क्राॅस रोड्स नामक पत्रिका पर भी केस दर्ज हुआ था। सरकार विरोधी आवाजों और वामपंथियों के खिलाफ भी इसका दुरूपयोग होता रहा। 2012 में इस कानून के तहत सबसे बड़ी गिरफ्तारियां हुई । तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। तमिलनाडू के कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध कर रहे लोगों में से 9000 के खिलाफ यह धारा लगाई गई। इसी तरह 2017 में झारखंड में पतलगड़ी आंदोलन से जुड़े करीब 10 हजार आदिवासियों पर राजद्रोह का मामला लगाया गया था । 2019 में ये मामले वापस ले लिए गए। ब्रिटेन जिसने इस धारा को बनाया था वहां अभिव्यक्ति पर दमनकारी प्रभाव और लोकतंत्र के मूल्यों पर आघात की वजह से 2009 में इस धारा को समाप्त कर दिया गया। न्यूजीलैंड में लोकतांत्रिक मूल्यों को आघात पहुंचाने और विपक्ष का मुंह बंद कराने का औजार बनने के चलते 2007 में यह कानून समाप्त कर दिया गया। हमारे देश की केद्र सरकार विरोधियों पर जोरशोर से इसका प्रयोग कर रही जो अंग्रेजों के हुकूमत को दर्शा रहा । क्या इस कानून को खत्म करने पर भी कभी हमारे देश में भी वहस होगी ?
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