आज हमारा महानगरीय जीवन विभिन्न प्रकार के सन्तरास बोध से घिरा हुआ है। वो उसी में संर्घषकर्ता जीवन व्यतीत कर रहा है। उनपर क्या विचार करें ? अपनी समस्याओें के जन्मदाता कही ना कही वे स्वंय ही है । किन्तु हमारे नन्हे मुन्हे बच्चे जो खेल -कुदकर अपने शाररिक व मानसिक विकास के हकदार है। खुले आसमा के नीचे अपने हमजोलियो के साथ खिलखिलाकर भांति-भांति के रोकेने - टोकने की भय से रहित होकर खेलना चाहते है, उनकें लिए आज पार्क भी नही रहे क्योंकि कालोनीयों में जो पार्क है उनपर वहाॅ की आर0डब्लू0ओ0 का कब्जा हो जाता है। उसे वो अपने हिसाब से व्यवस्थित करके अपने नियमानुसार चलाते है उनमें बच्चों की खेलने की अनुमती नही होती।
इस देश में सरकारें ऋतुओं की तरह आती-जाती है, किन्तु उनका भी ध्यान इस ओर नही जाता कि बच्चे जो कल के नागरिक होंगे और उनका प्रारम्भिक विकास खेल-कुदकर ही होगा। तो उनके लिए खेल के मैदानों, पार्को का निमार्ण करवाया जाए, जो निशुल्क सभी वर्गाें के लिए समान रूप से हो। खेल के मैदान यदि है भी तो वहाॅ शुल्क अनीवार्य होता है तभी बच्चा प्रवेश पाता है। यह तो विशुद्ध पुंजीपति वर्ग की भाषा के लिए हो गया जो पैसों के बलपर खेलने का स्थान प्राप्त कर सकता है। और निम्न, मध्य, वित्तीय वर्ग और निम्न आय वर्ग वाले अपने बच्चों को कहा भेजे ? पार्काें में उनके प्रवेश पर रोक, गली में अवैध रूप से खडी गाडीयों के शिशे टुट जाने के भय से रोक ‘कि कही गाडी के शिशे टूट ना जाए’ तो वह बच्चे खेलें कहां ?
आज फ्लैट संस्कृति में फ्लैटों का चलन है, जिसमें कमरों के अतिरिक्त गैलरी या बालकौनी होती है, आगन नही जो बच्चे आगन में ही खेल ले यह भंयकर समस्या है जिसे देखते हुए भी कोई देखना नही चाहता। जीवन में खेलों का बहुत महत्व है इससे शाररिक, मानसिक स्वास्थ्य तो बढ़ता ही है, दूसरा पक्ष हार जीत का। बच्चा प्रारम्भ से ही जीत के साथ-साथ हार स्वीकार करना भी सिख जाता है। हारने के बाद उन्हें जितने के लिए उत्साह से भर जाता है, निराश ना होकर पूरे जोश के साथ जितने का प्रयास करता है। बचपन मेें खेलों में हारने - जितने के कारण यह बच्चे जब किशोरा अवस्था में आते है और किशोरा अवस्था से युवा अवस्था में तो जीवन में आने वाली विषम परिस्थतिया आने पर बिना विचलित हुए मजबूती से सामना कर उभर जाते है।
अनेक एजेंसियों द्वारा सर्वे रिर्पोट द्वारा सामने आया है कि जो बच्चे सिर्फ घरों में रहकर खेलते है, या कम्प्युटर, लैपटौप, मोबाईल फोन पर उपलब्ध खेलों का सहारा लेते है उन्हें प्रायः मैदानी क्षेत्र में खेलने वाले बच्चों के मुकाबले शाररिक रूप से कमजोर पाया जाता है। और भविष्य में जीवन में आने वाले प्रतिकुल घटनाक्रमों में भी वो कमजोर सिद्व होते है तथा स्वभाव से भी संकोची व रिर्जव स्वभाव के होते है। मोबाईल, कम्प्युटर, का कंट्रोल बच्चे के ही हाथ में होता है तो स्वभाविक है कि वो अपने को जिता हुआ ही देखंेगे। इससे उन्हें हार स्वीकार करने में, झुकने में, विरोध करने में, अपनी बात कहनें में कष्ट होता ह,ै क्योंकि उन्हें आदत ही नही होती ।
पहले तो खेल के मैदान व पार्क ही बहुत सिमित है यदि है भी तो उनपर विभिन्न खेल एकेडमियों व आर0 डब्लू0 ए0 का कब्जा हैं। इस तरह बच्चों से खेलने का मैदान व पार्क छीनकर हम उनके साथ अन्याय कर रहे है, और उनमें महत्वपूर्ण गुणों को विकसीत ही नही होने दे रहे। जो लोग बच्चों के खेलने के प्रति संजीदा है वो बच्चों को उत्साहित कर और अपना योगदान देते है। एसे वातावरण में पले बच्चे आगे चलकर जीवन में आने वाले उतार चढाव को खेल के हार जित की तरह लेते है।
यदि हम चाहते है कि हमारा देश समाज, राष्ट्र उन्न्तशील एंव शशक्त हो तो हमें इस दिशा में सोचना होगा तथा प्रयासरत होना होगा कि हमारे देश के 100 प्रतिशत बच्चों को खेल-कुदकर मैदान, पार्क उबलब्ध कराये जाए जिसकी जिम्मेदारी सरकार अपनी योजनाओें में प्राथमिकताओं के आधार पर लें और क्रियान्वित करे। आर0डब्लू0ओ0 अपने कार्यशैली में परिवर्तन कर पार्कों में बच्चों को स्वतंत्र रूप से खेलने दे। उनकें उत्साह को बढाये ताकि वह निर्भय होकर खेल सकें। हार जित का आनन्द लें सकें हमें उनकी बचपन की हत्या करने का कोई अधिकार नही है। ये ही शाररिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बच्चे शिक्षित होकर भविष्य मेें राष्ट्रीय विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने में तथा अपनी महती भूमिका निभानें में सक्षम होंगे।
डाॅ0 शिखा रस्तौगी
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